सोमवार, 30 अप्रैल 2012

विश्वकर्मा दिवस या फिर श्रम-दिवस

 मैंने बचपन में कहानी सुनी थी कि राजा भोज के उत्तराधिकारी एक राजा थे, नाम अब मैं भूल चुका हूँ क्योंकि बात काफी समय पहले सुनी थी। उस राजा ने सुन रखा था कि भारत (उस समय का आर्यावर्त) सोने की चिड़िया था, परन्तु सम्भवत उसे विश्वास नहीं हो पा रहा था। एक दिन अचानक सचमुच उसके बगीचे में सोने की चिड़िया आ गई, राजा का दिल ललचाया कि चिड़िया को पकड़ा जाये। सभी राज दरबारियों की कोशिश असफल होने पर राज पंडित ने कहा मैं आपकी मनोकामना पूरी करूँगा। सो पंडित ने  मंत्र पढ़ कर चिड़िया को उड़ा दिया। समाचार राजा तक पहुँचा तो ब्राह्मण ने उत्तर दिया, महाराज मैंने चिड़िया को इसलिए उड़ाया है कि चिड़िया आपके हाथ नहीं लगनी थी, ऐसा ज्योतिष में लिखा है और उसके लिये आप उदास रहते, ऐसा मैंने जान लिया था। सो वही बात आज मैं अपनी भारत माता के लाडले सपूतों में देख पा रहा हूं कि जो देश कर्म प्रधान देश बनकर सोने की चिड़या कहलाता था, आज वहीं देश भाग्य प्रधान और कलम प्रधान बन गया है। जिस भूमि ने संसार में सर्वप्रथम सभ्यता दी एवं विज्ञान को जन्म देकर पुष्पक-विमान (रामायण कालीन) तथा दूर-दर्शन (टैलिविजन महाभारत कालीन जिसका उपयोग संजय ने किया था) आदि का आविष्कार कर संसार को आश्चर्यचकित किया था, आज उसी भारत में विज्ञानवेताओं एवं विश्वकर्माओं को उचित स्थान ना देकर हेय बनाया जा रहा है। उसी विश्वकर्मा की संतान जिसे देवताओं ने भी अभियन्ता के रूप में पुराण-प्रसिद्ध किया है।
    सच पूछिये तो विश्वकर्मा सही मानो में निर्माण के देवता हैं। अन्नकूट्ट जो आज हम मना रहे हैं (मंदिरों में घंटिया बजाकर) वास्तव में कर्मशालाओं में मनाना चाहिए, क्योंकि आज के दिन महर्षि विश्वकर्मा (शिल्पाचार्य त्वष्टा) ने हल बनाकर मानव को जमीन जोतना सीखाकर, सर्व प्रथम अन्न पैदा किया था, इसीलिए इस पर्व को अन्नकूट्ट कहने लगे। परन्तु बात फिर सोने की चिड़िया और पंडित वाली कथा याद आ जाती है कि बात कर्मशाला से चल कर मंदिरों में समाप्त हो जाती है। भारत सदैव से विज्ञानवेता होकर भी भाग्य प्रधान देश बन गया है। इनका विज्ञान साहित्य तो ले गया विदेशी और पीछे रह गया राहू और केतू का कालचक्र। वास्तव में मेरी अपनी धारणा यह मानती है कि वह सोने की चिड़िया अपने साथ जो पुस्तकें ले गयी थी तो वहाँ के लोगों ने पूछा पुस्तकें कहाँ से लाई हो तो उत्तर मिला शर्मा जी से इसी आधार पर लोग उन्हें शर्मन कहने लगे जो आज रूप बदलकर जर्मन बन गया हैै। गुलामी के सैंकड़ों वर्षों में विदेशी राज ने हमारी स्वस्थ परंपरा एवं प्रथा पर जबरदस्त आक्रमण किये, उदाहरण साक्षी है कि मलमल बुनकर के हाथ काटे गये, विश्व के सात आश्चर्यों में से सक्खर का पुल बनाने वाले लोहार के हाथ काट डाले गये और तभी से श्रम पराधीन हो गया और मौका परस्तों ने भाग्य प्रधान का नारा दे दिया।
    आज स्वतंत्रता पाये वर्षों बीत चुके हैं, परन्तु श्रमिक आज भी पराधीन है, कुर्सी, कलम एवं लक्ष्मी का। विदेशी सरकारों ने तो समझना शुरू कर दिया है कि मई दिवस पर क्रांति लाने वाला नारा ‘विश्व के श्रमिकों एक हो जाओ’ चिंगारी फूंक चुका है। परन्तु मई दिवस विध्वंसकारी, विनाशकारी हो सकता है, ऐसा मैं भी मान रहा हूं क्यों कि इसकी नींव स्वस्थ नहीं है। वास्तव में भारतीय संस्कृति एवं पौराणिक प्रथानुसार विश्वकर्मा दिवस ही हमारा राष्ट्रीय श्रम दिवस है। विश्वकर्मा ने कर्म स्वतंत्र के द्वारा हमें श्रम का मालिक बनाकर संसार में सम्मान का स्थान प्राप्त कराया है।
    विश्वकर्मा जिन्हें त्वष्टा भी कहा जाता है, स्वायंभव मन्वन्तर में देवताओं तथा प्रजापति के शिल्पी थे। वह शिल्प विज्ञान के प्रथम आचार्य थे। सुंद और अपसुंद के विनाशार्थ उन्होंने तिलोत्मा को उत्पन्न किया। त्रिपुरा सुर के विनाशार्थ शिव के रथ (मोटर) देवताओं के लिये वायुयान (हवाईजहाज) शिव-पार्वती के लिये लंका, कृष्ण के लिए द्वारिका एवं वृदावन, युधिष्ठिर के लिए हस्तिनापुर, देवताओं के शस्त्रागार और बज्र, भगवान विष्णु, शिव, इन्द्र के लिए क्रमशः चक्र, त्रिशूल एवं बज्र को निर्माण किया। यदि रामायण काल में सेतु बन्ध ना होता तो शायद रामायण का कोई और ही रूप होता। आज भी भारत को यदि शक्तिशाली देश मानें तो आप भी इस निष्कर्ष पर पहुंच जायेंगे कि विश्वकर्मा संसार के समस्त औद्योगिक विकास और उत्पादक श्रम के आदि-प्रवर्तक हैं। विश्वकर्मा की धनीभूत राष्ट्रीयता आज हमारे श्रम का मुख्य आदर्श है।
    आज हम राष्ट्र के पुनर्निमाण की बातें कहते परंतु इस लक्ष्य को प्राप्त करने वाले श्रमिक वर्ग को उच्च स्थान दिये बिना ऐसा सम्भव नहीं है। यह सभी की धारणा बन चुकी है। आज के इस पवित्र पर्व को जहां श्रमिक समाज समझने लगा और इस दिन विश्वकर्मा पूजा कर्मशालाओं, विश्वकर्मा मंदिर एवं सभी छोटी व बड़ी फैक्ट्रियों में होने लगी हैं। इस दिन श्रमिक अपने सभी औजारों, मशीनों को सजा कर मालाएं अर्पण कर पूजा अर्चना कर एवं मिठाई बांट कर शुभदिन कहते हैं। इसी प्रकार सरकार को भी इस दिन राष्ट्रीय दिवस मानकर श्रमिकों का उत्साहित करना चाहिए, क्योंकि इस दिन मानव अन्न ग्रहण करता है एवं इसी दिन ही विश्वकर्मा अवतरण दिवस भी माना जाता है, जो कि किसी एक का ना होकर सभी श्रमिक समाज का पूज्यनीय देवता है। विराट् विश्वकर्माणे नमः। 
रामशरण युयुत्सु
श्री अंगिरा शोध संस्थान, जीन्द (हरि.)

गर्व का अनुभव तो होगा ही

    पिछले दिनों समाचार-पत्रों में एक समाचार प्रकाशित हुआ कि कांग्रेस पार्टी ने राष्ट्रपति पद के आगामी कार्यकाल हेतु डॉ. सैम पित्रौदा के नाम पर चिंतन शुरु कर दिया है। वास्तव में आजकल कांग्रेस के पास बहुमत नहीं है, इसीलिए चिंतन शब्द की बात कही गई है, नहीं तो घोषणा ही कर दी जाती। इस समाचार को जानकर पांचाल समाज के लोगों की बांछे ही खिल गई। समाचार पढ़ते-पढ़ते प्रातःकाल की चाय के लेते समय मेरे पास भी कई पांचाल-मित्रों के फोन भी आ गए। वह खुशी के मारे फूले नहीं समा रहे थे। वास्तव में यह वही स्थिति थी, जो किसी को उसकी औकात से ज्यादा मिल जाए। परन्तु यह बात (स्थिति) तो हमारे समझने पर ही निर्भर करती है। देखा जाए तो इस समाज की ऊर्जा किसी भी स्थिति में कम नहीं है। इसी समाज में आदि शंकराचार्य जैसे आध्यात्मिक पुरुष, ज्ञानी जैल सिंह जैसे राजनीतिज्ञ, गोस्वामीदास जैसे समाज सेवक, न्यायमूर्ति जे.एम. पांचाल जैसे न्यायाधीश, यूरी गागरीन जैसे चन्द्रयात्री, एडोल्फ हिटलर जैसे सेनानायक हुए हैं।
    डॉ. सैम पित्रौदा भी विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक ही नहीं, भारत की मान-शान भी हैं। पूर्व प्रधानमंत्री राजीव गांधी की सूझ-बूझ से डॉ. पित्रौदा ने सी. डॉट प्रणाली में एक आन्दोलन लाकर खड़ा कर दिया। इससे भारत में नए युग का सूत्रपात हुआ। इन्हीं के कारण आज भारत विश्व की ओर नहीं देख रहा है, बल्कि विश्व भारत की ओर देखने को मजबूर है।
    परन्तु पिछले दिनों कुछ राजनीतिक लोगों ने या तो कहें कांग्रेस महासचिव राहुल गांधी ने सैम पित्रौदा को विश्व प्रसिद्ध वैज्ञानिक से राजनीति का मोहरा बनाकर उनका प्रयोग किया। उ.प्र. के चुनाव में डॉ. पित्रौदा को पिछड़ा वर्ग का प्रतिनिधि बनाकर उनके नाम पर वोटें मांगी गई। डॉ. पित्रौदा भी सोनिया व राहुल की चॉबी का खिलौना बन गए। समाज के कई चिन्तक लोगों के बीच यह स्थिति चर्चा का विषय बन गई। परन्तु इसमें भी कोई संदेह नहीं है कि कांग्रेस पार्टी और उसके संचालक बहुत दूर की सोचकर इन्दिरा गांधी की शैली पर ज्ञानी जैल सिंह की तरह राष्ट्रपति के आसन पर उनको बैठाकर अपना सुरक्षा कवच मजबूत कर लेंगे।
    भले ही ज्ञानी जैल सिंह की तरह विश्वकर्मा समाज को इनसे कोई लाभ हो या ना हो परन्तु गर्व का पारा तो ऊँचाई को छू लेगा। उनके राष्ट्रपति के पद को सुशोभित करने पर समाज के लोगों की छाती तो गर्व से फूल ही जाएगी। इस समाचार से गर्व का अनुभव तो होगा ही यह स्थिति आने से पूर्व और उनको राष्ट्रपति के पद पर देखने के लिए हमारा भी नैतिक कर्त्तव्य बनता है कि हम सभी, पूरे विश्वकर्मा समाज के लोग अपनी-अपनी सभा, महासभा की एक विशेष बैठक आयोजित करके, प्रस्ताव पारित करके कांग्रेस पार्टी के कार्यालय में भिजवाएँ। इस प्रकार का विशेष प्रस्ताव तथा सहमति पत्र समाज के हर व्यक्ति की ओर से व्यक्तिगत रूप से भी पत्र लिखा जा सकता है। इससे डॉ. सैम पित्रौदा के पीछे पूरा समाज खड़ा दिखाई देगा और कांग्रेस को अपना प्रस्ताव रखने में बल मिलेगा। 
रामशरण युयुत्सु

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